मानवता के पुरोधा और एकात्म मानववाद के प्रणेता थे पं.दीनदयाल उपाध्याय: दिलीप पांडेय
उमरिया। भारतीय जनता पार्टी उमरिया ने आज पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी को पुण्यतिथि जिले के सभी मंडलों और बूथ स्तर पर मनाई गई। वहीं जिलाध्यक्ष दिलीप पाण्डे जी ने पंडित जी के जीवनी पर जानकारी देते हुए बताया कि महानायक अंत्योदय कल्याण के मंत्रदाता जिन्होंने समाज के मार्गदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। समाज के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विकास में ऐसे महापुरुष के विचार अहम हैं। उनसे समाज को एक नई दिशा मिली। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी सादगी और ईमानदारी के मिसाल है जीवन भर राष्ट्र और जनता की सेवा करते रहे। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी पंडित दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिंतक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद, राजनीतिज्ञ, वक्ता, लेखक और पत्रकार जैसी अनेक प्रतिभाएं छुपी थीं। महान चिंतक और संगठनकर्ता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद का विचार देकर मानव के कल्याण का एक नया मार्ग समाज के सामने रखा जिसकी प्रासंगिकता समय के साथ बढ़ती चली गई।राष्ट्र निर्माण और समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय का पूरा जीवन सादगी, ईमानदारी और प्रेरणा की मिसाल है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय मात्र एक राजनेता नहीं थे। वे उच्च कोटि के चिंतक, विचारक और लेखक भी थे। उन्होंने शक्तिशाली और संतुलित रूप में विकसित राष्ट्र की कल्पना की पूरी दुनिया को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा से परिचित कराने वाले दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीतिक और आर्थिक चिंतन के एक वैचारिक दिशा देने वाले पुरोधा थे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर,1916 को उत्तर प्रदेश की पवित्र ब्रजभूमि में मथुरा के नगला चंद्रभान नामक गांव में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय रेलवे में कर्मचारी थे। जब ढाई साल के थे तो पिता का देहांत हो गया और 12 साल के हुए तो मां चल बसीं। बचपन मां- बाप के प्यार से महरूम हो गया। अनगिनत कठिनाइयों का दौर शुरू हो गया। नाना और मामा ने पालपोस कर बड़ा किया। छोटी-सी उम्र में ही दीनदयाल उपाध्याय के ऊपर ख़ुद की देख- भाल के साथ-साथ अपने छोटे भाई को संभालने की जिम्मेदारी आ गयी। बचपन से ही पढ़ने में मेधावी दीनदयान जीवन के तमाम झंझावातों को झेलते हुए पढ़ाई का साथ कभी नहीं छोड़ा और इंटरमीडिएट की परीक्षा में विशेष योग्यता के साथ उतीर्ण हुए। कॉलेज, कानपुर से 1939 में ग्रेजुएशन की डिग्री फर्स्ट डिवीज़न से हासिल करने के बाद अंग्रेजी साहित्य में एम ए की पढ़ाई के लिए आगरा के सेन्ट जॉन्स कॉलेज में दाखिला लिया। हालांकि ममेरी बहन की अचानक तबीयत बिगड़ने के कारण उन्हें एम ए की पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी।दीनदयाल उपाध्याय जी ने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र निर्माण और सार्वजनिक सेवा में लगा दिया। वे जीवन भर अविवाहित रहे। कानपुर में स्नातक करने के दौरान अपने मित्र बलवंत महाशब्दे की प्रेरणा से 1937 में वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो गए। आगरा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यक्रम के दौरान उनका परिचय नानाजी देशमुख और भाउ जुगडे से हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्र सेवा का विचार उनके दिल में जगह बनाने लगा और वे राष्ट्र और समाज सेवा के लिए खुद को समर्पित कर दिए।
जनसंघ की स्थापना में पंडित दीनदयाल की भूमिका अविस्मरणीय रही है lएक बार दिल में राष्ट्र सेवा का अलख जगने के बाद दीनदयाल उपाध्याय का राष्ट्र सेवा और सामाजिक सरोकार से इतना गहरा नाता जुड़ गया कि सरकारी नौकरी में चुने जाने के बावजूद उन्होंने राष्ट्र और समाज सेवा को ही अपनी प्राथमिकता दी। 1942 में प्रयाग से कोर्स पूरा करने के बाद दीनदयाल उपाध्याय ने संघ शिक्षा वर्ग का द्वितीय वर्ष पूरा किया और संघ के पूर्णकालिक प्रचारक होकर उत्तर प्रदेश के लखीमपुर ज़िले में आ गए। अपनी कर्मठता से तीन वर्ष में ही 1945 में वे उत्तर प्रदेश प्रांत के सह प्रांत प्रचारक बन गए। दीनदयाल उपाध्याय ने आरएसएस के माध्यम से देश सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। 1950 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया और देश में राष्ट्रवाद की अलख जगाने के लिए आंदोलन शुरू किया। दीनदयाल उपाध्याय ने इस आंदोलन में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 21 सितंबर 1951 को उन्होंने उत्तर प्रदेश के लखनऊ में एक राजनीतिक सम्मेलन का सफल आयोजन किया। इसी सम्मेलन में देश में एक नए राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ की राज्य इकाई की स्थापना हुई। इसके एक महीने बाद 21 अक्टूबर, 1951 को श्यामा प्रसाद मुख़र्जी ने दिल्ली में भारतीय जनसंघ के प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी सम्मेलन में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। जनसंघ की स्थापना के साथ ही दीनदयाल उपाध्याय का जीवन दो भागों में समर्पित हो गया। एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरा जनसंघ। भारतीय जनसंघ को देश की राजनीति में स्थापित करने में दीनदयाल उपाध्याय की भूमिका अग्रणी नेताओं में रही। 1952 में वो जनसंघ के महामंत्री बने और 1967 तक लगातार जनसंघ के नीति-निर्धारक और पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाते रहे। इस दौरान वे पार्टी की नीति, रीति, संगठन, चुनाव, आंदोलन सबका संचालन करते रहे। दिसंबर 1967 में कालीकट में हुए जनसंघ के अखिल भारतीय अधिवेशन में उन्हें भारतीय जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया।पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजनीति में हमेशा से शुचिता के समर्थक थे।राजनीतिक चिंतक और विचारक के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद जैसे प्रगतिशील विचारधारा से दुनिया का परिचय कराया। उनका दर्शन पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों की सशक्त समालोचना है। उनका राजनीतिक दर्शन मानव मात्र की आवश्यकताओं के अनुरूप जीवन दर्शन है।मानवीयता के उत्कर्ष की स्थापना यदि किसी राजनैतिक सिद्धांत में हो पाई है... तो वह है पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद का सिद्धांत। इसमें उन्होंने भारत को देश से बहुत अधिक आगे बढ़कर एक राष्ट्र के रूप में और इसके निवासियों को नागरिक नहीं बल्कि एक परिवार के सदस्य के रूप में माना है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद को सैद्धांतिक रूप में नहीं बल्कि आस्था के स्वरूप में स्वीकार किया।दरअसल, उन्नीसवीं शताब्दी में अलग-अलग विचारधाराओं के परस्पर तनाव ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया था। जिस समय पूरा विश्व पूंजीवाद और साम्यवाद की अच्छाई और बुराई की बहस में उलझा हुआ था, उसी वक्त पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इन दोनों विचारधाराओं को नकारते हुए एकात्म मानववाद की अवधारणा दी। दरअसल एकात्म मानववाद भारतीय संस्कृति, विचार और दर्शन के बीच से ही उपजा है। पंडित दीनदयाल ने कभी भी इस बात का दावा नहीं किया कि उन्होंने दुनिया के सामने कोई नया वाद रखा है। वे बार-बार कहते रहे कि एकात्म मानववाद के जरिए वे भारत की सनातन संस्कृति की ही बात कर रहे है। उनका मानना था कि समाज का आधार संघर्ष नहीं सहयोग है।देश की आजादी के बाद के तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मानव कल्याण के लिए ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की अवधारणा को समाज के सामने रखा। इसके जरिए उन्होंने आम इंसान की गरिमा को स्थापित करने का प्रयास किया। सबसे पहले 1964 में ग्वालियर में आयोजित भारतीय जनसंघ के अधिवेशन में उन्होंने एकात्म मानववाद का विचार पेश किया था। उन्होंने अप्रैल 1965 में पूना में आयोजित जनसंघ के अधिवेशन में एकात्म मानववाद के बारे में विस्तार से बताया भी था।वो किसी व्यक्ति या विचारधारा क राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में व्यक्तिगत शुचिता और गरिमा के जो उंचे आयाम स्थापित किये वो आज भी अनुकरणीय हैl
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